हिन्दी फिल्मों के हीरो को रूपहले पर्दे पर भाँति भाँति की जंग लड़ते और विजयी होते सबने देखा है। पर असल जिंदगी में मुश्किलों से भरी संकट की घड़ी से बच निकलना इतना आसान नहीं होता। कोरोना संक्रमणकाल में कैंसर की लाइलाज बीमारी ने अचानक दो दिनों में भारतीय फिल्मोद्योग के दो चमकते सितारे इतनी बेरहमी लील लिए कि उनके चाहने वालों, मित्रों, सह कलाकारों को अंतिम दर्शन कर श्रद्धा सुमन अर्पित करने तक का मौका भी न मिला। इरफान खान (53) और ऋषि कपूर (67) बॉलीवुड में सशक्त और लोकप्रिय अभिनेताओं की दो अलग अलग पीढ़ियों और परम्पराओं का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।
इरफान न तो ऋषि कपूर की तरह सितारा पुत्र थे और न ही अभिनय उन्हें बाप दादा से विरासत में मिला था। राजस्थान में टोंक जैसे कस्बे में पैदा हुए इस विलक्षण कलाकार ने समझदारी की उम्र तक आते आते अपने पूरे नाम 'साहबजादे इरफान अली खान' में से साहबजादे और अली को विलोपित कर दिया था। किशोरावस्था में ख्वाहिश क्रिकेटर बनने की थी और सीके नायडू ट्राफी में शिरकत करनेवाली टीम में जगह बन चुकी थी, मगर एक्टिंग का चस्का भारी पड़ा और कदम नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा की ओर बढ़ गये। 1987 में एनएसडी से अभिनय में निपुण होकर निकले इरफान को 1988 में मीरा नायर की सलाम बॉम्बे में छोटा सा रोल मिला पर इससे कुछ हासिल न हुआ। 90 के दशक में चाणक्य, भारत एक खोज और द ग्रेट मराठा सरीखे सहित अनेक टीवी धारावाहिकों में काम मिला पर बॉलीवुड में पहचान मिलनी अभी बाकी थी।
2003 में विशाल भारद्वाज की मकबूल ने यह कमी दूर कर दी। अगले साल 2004 में तिग्मांशु धूलिया की हासिल ने पहला फिल्म फेयर अवार्ड दिलाया और इरफान के कैरियर की हिचकोले खाती गाड़ी चल निकली। 2011 में राष्ट्रपति के हाथों पद्मश्री सहित पानसिंह तोमर के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला। इस बीच लाइफ इन ए मेट्रो, स्लमडॉग मिलेनियर, न्यूयॉर्क में उन्हें सराहा गया। हॉलीवुड की चार फिल्मों- द अमेजिंग स्पाइडरमैन, लाइफ ऑफ पाई, जूरासिक वर्ल्ड और इन्फर्नो में काम करने से इरफान की शोहरत और बढ़ी। इधर लंच बॉक्स (2013), गुंडे और हैदर (2014) तथा पीकू, जज्बा और तलवार (2015) में उन्होंने अपने अभिनय की धार तेज की। पर मदारी (2016), करीब करीब सिंगल (2017), ब्लैकमेल और कारवाँ (2018) में दर्शकों ने दिलचस्पी नहीं दिखाई।
एनएसडी में साथ साथ पढ़े इरफान और सुतापा सिकदर 1995 में जीवन साथी बने। सुतापा स्वयं एक उम्दा स्क्रीन राइटर हैं और खामोशी द म्यूजिकल से लेकर कहानी तक कई फिल्मों के संवाद लिख चुकी हैं। वे मदारी और करीब करीब सिंगल की निर्माता भी रही हैं। 2017 में प्रदर्शित हिन्दी मीडियम इरफान की बॉक्स ऑफिस पर सर्वाधिक कमाई करने वाली फिल्म साबित हुई। 2018 में कैंसर की चपेट में आकर लंबे समय तक विदेश में इलाज कराने के बावजूद निर्माता दिनेश विजान ने हिन्दी मीडियम के सीक्वल अंग्रेजी मीडियम के लिए इरफान का इंतजार किया। भले ही इरफान की इस आखिरी फिल्म की रिलीज कोरोना संक्रमण जनित लॉक डाउन की भेंट चढ़ गई, पर उन जैसे तराशे गये अभिनेता हर मीडियम में अपनी छाप छोड़ने में सक्षम साबित होते हैं।
अभी इरफान के इंतकाल की मायूसी थमी भी न थी कि अगले ही दिन ऋषि कपूर के आकस्मिक निधन की खबर से फिल्म प्रेमियों को दोहरा धक्का लगा। विदेश में ग्यारह महीने ग्यारह दिन कैंसर से लड़कर स्वदेश लौटे ऋषि कपूर ने अद्भुत जिजीविषा का परिचय दिया था। सठियाई उम्र में उनके स्वभाव में बदलाव परिलक्षित होने लगा था। सोशल मीडिया खासकर ट्वीटर पर उनके बेबाक ट्वीट दिन रात ट्रॉलिंग का शिकार होते।
ऋषि कपूर के फिल्मी कैरियर का विश्लेषण करने पूर्व यह समझ लेना उचित होगा कि अपनी रोमांटिक छवि के चलते बॉबी से लेकर प्रेमग्रंथ तक उन्होंने अपनी इस इमेज का पूरा ख्याल रखा और एकल नायकत्व (सोलो हीरोईज्म) के अहम् से खुद को बचाये रखा। इसीलिए बॉबी के बाद जहरीला इंसान, जिंदा दिल, राजा, रंगीला रतन और नया दौर की घोर असफलता तथा रफूचक्कर, खेल खेल में, लैला मजनूँ और बारूद की मिलीजुली कामयाबी ने चिंटू बाबा को इस कड़वे सच से अवगत करा दिया था कि अकेले अपने दम पर सफलता का जोखिम उठाना कदाचित उनके बस में नहीं है और दो नायक वाली तथा बहुसितारा फिल्में ही उन्हें दौड़ में बनाये रखेंगी।
यही हुआ भी। हम किसी से कम नहीं, सरगम, कर्ज और प्रेम रोग को छोड़ दें, तो कभी कभी, दूसरा आदमी, अमर अकबर एंथनी, बदलते रिश्ते, दुनिया मेरी जेब में, आपके दीवाने, कातिलों के कातिल, नसीब, जमाने को दिखाना है, ये वादा रहा, दीदार ए यार, कुली, दुनिया, तवायफ, सितमगर, सागर, नसीब अपना अपना, दोस्ती दुश्मनी, हवालात, खुदगर्ज, सिंदूर, विजय, घर घर की कहानी, हथियार, चांदनी, नगीना, निगाहें, अजूबा, हिना, बोल राधा बोल, दीवाना, दामिनी, ईना मीना डिका, दरार, जयहिंद जैसी बड़े बैनर की फिल्मों में उन्होंने करीब ढाई दशक तक अपनी प्रभावी मौजूदगी बनाये रखी। फिल्मों को सफलता नायिका प्रधान होने से मिली हो या गीत संगीत के लोकप्रिय होने से, ऋषि कपूर ने हिन्दी फिल्मों में, हर लजीज व्यंजन में आलू की तरह, अपनी अहमियत बरकरार रखी।
(लेखक वरिष्ठ फिल्म समीक्षक एवं स्तंभकार हैं)
फलक पर दो सितारों का यकायक टूटना - विनोद नागर